
अगर आपके पास जानकारी है, तो आप सशक्त हैं और इनके बिना आप अवसरों, अधिकारों और अपनी आजादी से भी वंचित हो सकते हैं। उत्तराखंड त्रासदी में सूचना ही सबसे अधिक आहत हुई, मगर कैसे? हिमालय के ऊपरी इलाकों की सही स्थिति के बारे में हमारे पास लगभग न के बराबर सूचना है। इसमें कोई दोराय नहीं कि उत्तराखंड में आई बाढ़ सरकार व नागरिक, दोनों के लिए खतरे की घंटी है। यह त्रासदी अपने आप में एक संस्थागत आपदा भी है। बादल फटने और बारिश के कहर के टूटने से पहले मौसम विभाग ने रुद्रप्रयाग में चेतावनी दी थी, तब भी आपदा प्रबंधन से जुड़ी संस्थाएं ठोस तैयारी नहीं कर पाईं। भारत की हाई-टेक कम्युनिकेशन लैब यानी डिफेंस इलेक्ट्रॉनिक्स एप्लीकेशन लैबोरेटरी (डीईएएल) देहरादून में है। लेकिन आपदा के दो हफ्ते बाद भी सरकार संचार-व्यवस्था दुरुस्त करने में डीईएएल का सहयोग नहीं ले पाई। विभिन्न राज्यों ने मदद की घोषणा की है, पर उत्तराखंड सरकार स्थिति से निपटने के तरीके को लेकर अनभिज्ञ थी। जाहिर है, आपदाग्रस्त क्षेत्रों के हाई-रेजोल्यूशन मैप होने चाहिए। लेकिन इसके अभाव में बचाव दल को फंसे हुए लोगों को ढूंढ़ने में काफी मशक्कत करनी पड़ी है। विशेषज्ञों के अनुसार, बेहतर आपदा प्रबंधन के लिए इलाके के नक्शे 1:500 के अनुपात में होने चाहिए, लेकिन उत्तराखंड के बाढ़ प्रभावित इलाकों के ऐसे नक्शे ही नहीं हैं।
प्राकृतिक आपदा के दौरान और इसके बाद लोग कई तरह के सवाल करते हैं। वे अपनों से जुड़ी जानकारियां चाहते हैं। आज हमारे पास सूचना के कई स्नोत हैं, जैसे रेडियो, टेलीविजन, इंटरनेट, एसएमएस, मोबाइल फोन इत्यादि। फिर भी समस्या के निदान में ये स्रोत निर्णायक भूमिका नहीं निभा पाए। हमारे पास संचार के दो मजबूत सामुदायिक माध्यम हैं- पहला, सामुदायिक रेडियो और दूसरा, मोबाइल फोन। लोगों की जान बचाने में सामुदायिक रेडियो की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। 15-20 किलोमीटर तक की पहुंच वाले पब्लिक रेडियो स्टेशन मोबाइल फोन से जुड़कर काफी प्रभावी बन जाते हैं। लेकिन उत्तराखंड के आपदा-क्षेत्र में महज तीन सामुदायिक रेडियो चल रहे हैं- कुमाऊं वाणी (मुक्तेश्वर), हेनवाल वाणी (चंबा) और मंदाकिनी की अवाज (रुद्रप्रयाग)। सरकार की तारीफ की जानी चाहिए कि उसने यह संभव बनाया है कि एनजीओ इसे चलाने की परमिट पा सकें। लेकिन संचार मंत्रलय ने बीते पांच वर्षों में 239 आवेदकों में से एक को भी पब्लिक रेडियो चलाने की मंजूरी नहीं दी है, जबकि इनसे वार्षिक शुल्क लिए गए हैं। भारत की 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है, जहां शासन-सुविधा से लेकर सूचना तक अपर्याप्त हैं। ऐसे में, सामुदायिक रेडियो बेहद जरूरी हैं।
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