उत्तराखंड में आसमान से बरसी आफत ने जबरदस्त तबाही मचाई है। खत्म होती जिंदगियां, उफनती नदियां और ताश के पत्ते की तरह बिखरते घर इसके गवाह हैं, जिसने आपदा प्रबंधन की तैयारियों की पोल खोल कर रख दी है। उत्तराखंड ही नहीं आज यह पूरे देश की कड़वी सच्चाई है कि कहीं भी आपदा प्रबंधन हमारी प्राथमिकता नहीं है। आपदा प्रबंधन तो दूर, हमने पहले के हादसों से भी कभी कुछ नहीं सीखा। हालात ये हैं कि वहां सूचनाओं तक में विभागीय तालमेल नहीं है।
अगर, आज उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में आधुनिक डॉप्लर वेदर रडार होते तो समय रहते बादल फटने की चेतावनी देकर सैकड़ों जानें बचाई जा सकती थीं। दरअसल, डॉप्लर रडार मौसम में रेडियो तरंगें भेजते हैं, जो पानी की बूंदों व धूल कणों से टकराकर वापस लौटती हैं और कंप्यूटर उन्हें इकट्ठा कर चित्र बनाता है। इस तकनीक से बादलों की सघनता, ऊंचाई, गति मापी जा सकती है।
हैरानी की बात ये है कि उत्तर भारत के ऐसे खतरनाक पहाड़ी इलाके में एक भी ऐसा आधुनिक रडार नहीं है, जबकि ये रडार सिस्टम देश के उन 14 शहरों में मौजूद है, जहां मौसम सहज है और लोग अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं। वो शहर हैं दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, कोलकाता, जयपुर, हैदराबाद, पटियाला, चेन्नई, नागपुर, पटना, अगरतला, डिबरुगढ़, मछलीपट्टनम और विशाखापट्टनम।
यहीं नहीं, आपको जानकर और भी हैरानी होगी कि उत्तराखंड व हिमाचल के मौसम का मिजाज भी पटियाला के रडार से मापा जाता है, जिसकी जानकारी अंदाजे पर टिकी होती है। वैसे भी बड़े बांधों वाले पहाडी इलाकों में आकस्मिक बाढ़ के पूर्वानुमान का तंत्र जरूरी है लेकिन 45 बांधों वाले उत्तराखंड में यह जानना कतई असंभव है कि कब कहां बादल फटेगा।
यही हाल हिमाचल का है। ताजा आपदा से सर्वाधिक प्रभावित उत्तराखंड के चार जिलों रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ में 24 सक्रिय बांध हैं, जिनके आसपास फटने वाला बादल पूरे उत्तराखंड को डुबा सकता है।
उत्तराखंड के आपदा प्रबंधन पर 2010 में आई कैग की रिपोर्ट में भी बताया गया था कि बांध वाले इलाकों में 2002, 2005 और 2008 आकस्मिक बाढ़ आई थीं। लेकिन मौसम विभाग ने इस इलाके में मौसम पूर्वानुमान दुरुस्त करने की सुध नहीं ली।
ऐसे हालात को देखकर कोई भी आसानी से कह सकता है कि ये तबाही किसी और वजह से नहीं, हमारी लचर व्यवस्था और लापरवाही का ही नतीजा है। आज इस संकट की घड़ी में अगर कोई काम आया तो वो थी सेना की टीम औऱ पहाड़ों में कुछ गिने चुने कॉम्यूनिटी रेडियो सेवाएं। वैसे भी सेना हर संकट में मदद को तैयार रहती है, लेकिन बगैर सूचना वो भी कुछ नहीं कर सकती। ऐसे में सूचना के लिए उसे भी कॉम्यूनिटी रेडियो का सहारा लेना पड़ा।
उत्तराखंड में आपदा की इस घड़ी में कुमाऊं वाणी, हेनलवाणी और मंदाकिनी की आवाज नाम की कॉम्यूनिटी रेडियो लगातार मुसीबत में फंसे लोगों की मदद कर रहे हैं। वैसे भी पहाड़ी इलाकों में एक गांव से दूसरे गांव में संपर्क करना आसान नहीं होता, वहां के लोग कॉम्यूनिटी रेडियो के माध्यम से ही एक दूसरे की खबर रखते हैं। और ये साबित करता है कि आपदा की घड़ी में सूचना और तकनीक का कितना महत्व होता है।
आज उत्तराखंड में तबाही में मीडिया के जरिए सरकार की लापरवाही की बात भी सामने आ रही है। जिसमें ये भी कहते सुना जा रहा है कि बारिश की चेतावनी के बावजूद सरकार ने कुछ नहीं किया। वैसे भी सरकार कर भी क्या सकती थी, जिसके पास सटीक सूचना पाने का न कोई तंत्र है और नाहि उसे विकसित करने का मंत्र है। पहाड़ी इलाकों में जहां सूचना संपर्क और तकनीक की सख्त जरूरत है, वहां उसे विकसित करने बजाय सरकार ने अबतक हतोत्साहित ही किया है। हालत ये है कि पिछले एक साल सैकड़ों आवेदन के बावजूद सरकार ने कॉम्यूनिटी रेडियो का एक भी लाइसेंस जारी नहीं किया।
हालांकि, सरकार ने भी इस लापरवाही को स्वीकार करते हुए माना है कि पहाड़ों में नई तकनीक की जरूरत है। सरकार के इस तर्क में किसी हद तक लाचारी और सच्चाई छिपी है। अगर, मौसम विभाग की पिछली चेतावनियों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि अकसर सटीक सूचना के आभाव में उसकी भविष्यवाणियां गलत ही साबित हुई हैं। इसी वजह से भारत का मौसम विभाग अब तक खबरों से ज्यादा चुटकुलों में रहा है।
लेकिन, वक्त रहते कुछ कोशिशें की गईं होतीं तो इस तबाही के तांडव को काफी हद तक काबू में किया जा सकता था। अगर भविष्य में इस भयावह अतीत को दोहराना नहीं चाहते, तो आज ही हमें कम से कम चार मुख्य कोशिशें करनी होंगी। पहली कोशिश, मौसम विभाग को चेतावनी देने वाली सूचना और तकनीक पर आधारित सशक्त प्रणाली विकसित करना। दूसरा, सूचना संपर्क बढ़ाने के लिए कॉम्यूनिटी रेडियो को प्रोत्साहन। तीसरा, पहाड़ों पर बेहिसाब निर्माण कार्यों पर रोक। चौथा, ऐसे हालातों से निपटने के लिए स्थानीय लोगों को नई तकनीकी शिक्षा और ट्रेनिंग, ताकि आपदा की घड़ी में एक दूसरे की मदद कर सकें। ये कदम अगर अब भी उठते हैं तो हम शायद भविष्य में हादसों से कुछ हद तक निपट सकेंगे।
जहां तक प्राकृतिक आपदा की बात है, पहले भी हिमालय टूटता, बनता और बिखरता रहा है। पहाड़ी इलाकों में लोगों की आबादी बढ़ने या घुसपैठ के पहले भी हिमालय के क्षेत्र में ग्लेशियर पिघलने, भूस्ख़लन और भूकंप की घटनाएं होती रही हैं। पहले भी अच्छी-बुरी सरकारें आती रही हैं, फिर भी उनके बदलाव का हिमालय के स्वभाव पर कोई असर नहीं पड़ा।
लेकिन, पिछले पच्चीस सालों में 8 प्रतिशत और 9 प्रतिशत वाले विकास वाले मॉडल को अपनाने के चक्कर में जो हुआ, उसका नतीजा सबके सामने है। नया राज्य बनने के बाद से ही जिस तरह उत्तराखंड में नदियों को खोदने, बांधने और बिगाड़ने करने का किया गया, उससे ऐसा लगता था कि जैसे विकास और जनतंत्र की परिभाषा यही हो। खासकर 2004 के बाद हालात तेजी से बिगड़े, जब उत्तराखंड में एक साथ अनगिनत जल विद्युत परियोजनाओं को मंजूरी मिली। बेतहाशा विस्फोटों से जर्जर हो चुके पहाड़ों की भीतरी जलधाराएं तक रिसने लगीं।
अब सवाल यह है कि आखिर विकास कैसे हो? अगर निर्माण नहीं होगा तो रोजगार कैसे होगा, कैसे स्कूल बनेंगे कैसे बिजली आएगी. कैसे उद्योग आएंगें। लेकिन आंकड़ें और वहां के हालात बताते हैं कि इन परियोजनाओं से और निर्माण सेक्टर में भारी आपाधापी के बावजूद उत्तराखंड जैसे 12-13 साल पुराने राज्य का कोई बड़ा भला नहीं हुआ। उसने कोई भारी छलांग तरक्की की नहीं लगा ली है। सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति आय के सुनहरे आंकड़े बेशक उसके पास हैं, लेकिन फाइलों से आगे असली दुनिया में उनका वजूद नहीं। आंकड़ो की गिनती से आम पहाड़ी गायब है।
ऐसे में जरूरत इस बात की है कि अब 8 प्रतिशत-9 प्रतिशत विकास वाले मॉडल को छोड़ ऐसा मॉडल विकसित किया जाए जो प्रकृति से छेड़छाड़ नहीं, बल्कि उसकी हिफाजत करने वाला हो, हर गांव को एक दूसरे से जोड़ने वाला हो। वैसे भी पहाड़ों की सुंदरता उसकी संपदा से है, अगर वहीं नहीं बचेगा तो विकास किस काम का। विकास तो ऐसा होना चाहिए कि पहाड़ का हर परिवार खुशहाल हो सके। ऐसा करने के लिए पहाड़ों में सूचना और तकनीकी विकास के साथ-साथ किसी ग्राम आधारित विकास के ढांचे की जरूरत है, ना कि उर्जा प्रदेश के पुराने राग को दोहरने की। समय रहते अगर हम, अब भी नहीं संभले तो लद्दाख, उत्तराखंड क्या, पूरे देश को प्रकृति की ऐसी मार झेलनी पड़ सकती है।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
Click here to read this Column at gaonconnection.com